कृपाचार्य

कृपाचार्य कौन थे?

गुरु कृपाचार्य भारतीय दर्शन, वेदान्त, न्यायशास्त्र, व्याकरण और अन्य विद्याओं के प्रसिद्ध आचार्य थे। वह महर्षि गौतम शरद्वान्‌ के पुत्र थे गुरु कृपाचार्य का जन्म सन् 788 ईसा पूर्व हुआ था उन्होंने विभिन्न विषयों में गहन अध्ययन किया और अपने जीवन के दौरान विद्वानों, छात्रों और शिष्यों को शिक्षा दी। उन्होंने बहुत सारी महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की और अपने विचारों को प्रचारित किया। इसी लिया उन्हें सप्तऋषियो में से एक मना जाता हे। कुरुक्षेत्र के युद्ध में ये कौरवों के साथ थे और उनके नष्ट हो जाने पर पांडवों के पास आ गए।

कृपाचार्य का जन्म रहस्य?

1.  उनका जन्म आदि शङ्कराचार्य के शिष्य और अद्वैत वेदान्त के मशहूर व्याख्याता श्री सुरेश्वराचार्य के नगरी अयोध्या में हुआ। मना जाता हे की शरद्वान की तपस्या भंग करने के लिए इंद्र ने जानपदी नामक एक देवकन्या भेजी थी, जिसके गर्भ से दो जुड़वाँ भाई-बहन हुए। पिता-माता दोनों ने इन्हें जंगल में छोड़ दिया जहाँ महाराज शांतनु ने इनको देखा। और दोनों का भरण पोसन किया

कृप धनुर्विद्या में अपने पिता के समान ही पारंगत हुये। जिनको भीष्म ने पाण्डवों और कौरवों की शिक्षा-दीक्षा के लिये नियुक्त किया और वे कृपाचार्य के नाम से विख्यात हुये। कृपी का विविह गुरु द्रोण के साथ हुआ जिनका अश्वत्थामा नमक एक महा बलशाली एवं चिरंजीवी पुत्र हुआ जो महाभारत युद्ध में कोरवो की और से लड़ा था।

2. शरद्वान गौतम एक महान तपस्वी थे। उनकी विकट तपस्या ने इन्द्र को अत्यंत चिंता में डाल दिया था। इन्द्र ने उनकी तपस्या को भंग करने के लिए ‘जानपदी’ नामक देवकन्या को उनकी तपस्या भांग करने के लिए उनके आश्रम में भेजा। उसके सौंदर्य पर कमुख होकर शरद्वान गौतम का अनजाने ही वीर्यपात हो गया। वह वीर्य सरकंडे पर गिरकर दो टुकड़ो में विभाजित हो गया, जिससे एक पुत्र और एक पुत्री का जन्म हुआ।

जो महाराज सांतनु को जंगल में मिले और महाराज इन्हे हस्तिनापुर ले अये और दोनों का पालन पोसन किया जिससे इनके नाम कृप तथा कृपी पड़ गए। यह बात उन्हें बाद में पता चली तो उन्होंने अपने तपोबल से अपने पुत्र का पता लगाकर गुप्त तरीके से अपने पुत्र को अस्त्र शास्त्र का सम्पूर्ण ज्ञान प्रदान किया।

कृपाचार्य महाभारत यूद्ध?

महाभारत के युद्ध में कृपाचार्य कौरवों की ओर से लाडे थे। वह अधर्म का साथ नही देना चाहते थे किन्तु वह हस्तिनापुर के कुल गुरु होने के कारन उन्होंने हस्तिनापुर के महाराज के पुत्र दुर्योधन का साथ दिया। यूद्ध में उन्होंने अपनी आधी शक्ति का ही उपयोग किया क्योकि उन्हें पता था की वह अधर्म की और से लड़ रहे थे कर्ण के वध के बाद उन्होंने दुर्योधन को बहुत समझाया कि उसे पांडवों से संधि कर लेनी चाहिए किंतु दुर्योधन ने अपने किये हुए अन्यायों को याद कर कहा कि न पांडव इन बातों को भूल सकते हैं। युद्ध में मारे जाने के सिवा अब कोई भी चारा उसके लिए शेष नहीं है।

कौरवों के नष्ट हो जाने पर कृपाचार्य पांडवों के पास आ गए। बाद में इन्होंने परीक्षित को अस्त्र विद्या सिखाई। ‘भागवत’ के अनुसार सावर्णि मनु के समय कृपाचार्य की गणना सप्तर्षियों में होती थी।और अपने तपोबल के शक्ति से उन्हें चरंजीव होने का वरदान भी मेला जिससे वह सप्त चरणजीवी क्रमशः हनुमान जी अश्वत्थामा परशुराम राजबली विभीषण रेषी वेदव्यास कृपाचार्य में से एक हुवे।

क्या आज भी जीवित हे कृपाचार्य?

मन जाता हे महाभारत यूद्ध में लाखो शूरवीरो के बलिदान के बाद केवल १३ योधा ही जीवित बच पाए थे जिनमे कृपाचार्य भी थे क्योकि ये चिरंजीवी थे कहा जाता हे की यूद्ध के बाद यह पांडवो के कुल गुरु रहे और उनके बाद जब अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु और उत्तरा का पुत्र परीक्षित राजा बना और वह उनके भी गुरु बने मन जाता हे के वह आज भी पृथ्वी पर विचरण कर रहे हे कलयुग के अंत में उनकी मृत्यू होगी।

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